ब्रह्माक चिंता

- रूपेश कुमार झा 'त्योंथ'

ब्रह्माक चिंता

ब्रह्मा कयलनि अनुपम श्रृष्टि,
श्रम सं ओ रचलनि इंसान।
बुद्धि संग द' बल-विवेक,
फुंकलनि ओहि मे ओ स्वर्णिम जान।

तइयो हुनका नहि भेटलनि तृप्ति,
द' देलनि मनुज कें असीमित ज्ञान।
भेजलनि जखन धरती पर ओकरा,
छल ने जीव कोनो ओहि समान।

सूझ -बूझ कें बले मानव,
कयलक तीव्र गतिये उत्थान।
पेट पोसबाक जोगर कय,
भेल ओ भौतिक सुख हेतु हरान।

विकासक सीढ़ी चढैत अपन,
सूझे अनलक उपयोगी विज्ञानं।
आह विज्ञानं जे ओ छुलक,
दूर मेघक चमकैत चान।

वाह मनुक्ख ! तू करबए किए ने,
अपन बुधि पर कने गुमान।
एही क्रमे बनल सेहो ओ,
पराक्रमी अस्त्र-शस्त्रवान।

उधेशय लागल आब मनुक्ख,
देवक बगिया कें बनि हैवान।
हाहाकार अछि पसरल सगरो,
दुष्ट ने बुझय अप्पन-आन।

मारय-काटय एक दोसर कें,
बैसल कुहरय लोक लहूलुहान।
त्राहि-त्राहि केर सुनि टाहि,
टूटलनि ब्रह्मा केर योग-ध्यान।

देखि अचंभित भेल छथि,
धरती परक सांझ-विहान।
चिंता मे छथि लागल ब्रह्मा,
भेटत कोना मनुक्ख सं त्राण।

7 comments:

Unknown said...

एतेक नीक रचना अपनेक स्वस्थ मानसिकता क गवाही देत अछि. बहुत बहुत बधाई.

करण समस्तीपुरी said...

देखि अचंभित भेल छथि,
धरती परक सांझ-विहान।
चिंता मे छथि लागल ब्रह्मा,
भेटत कोना मनुक्ख सं त्राण।

बड़ नीक ! अपन बेवकूफी पर सभ कें पछताए पड़ैत अछि. ब्रह्मा जी सेहो जुनी अवाद नहि छथि !

Rajeev Ranjan Lal said...

रुपेश जी, स्वागत एहि मंच पर| अहाँक रचना प्रशंसनीय अछि|

सुभाष चन्द्र said...

वाह मनुक्ख ! तू करबए किए ने,
अपन बुधि पर कने गुमान।
एही क्रमे बनल सेहो ओ,
पराक्रमी अस्त्र-शस्त्रवान।

जिम्हर देखू.. येह स्थिथि अछि... जे सचमुच चिंता के विषय छैक

satish said...

rupesh jee bahut sundar rachana
apane t hamar paroshi chi. hamar ghar nagwas bhel.ahina likhait rahu.
satish

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

एहि यथार्थवादी रचनाक लेल बधाई आ हार्दिक अभिनन्दन अपनेक एहि मंच पर।

Kumar Padmanabh said...

देर सँ टिप्पणी देबाक लेल खेद अछि. कविता अपने आप मे परिपूर्ण अछि. साहित्य मे अहाँ के रुचि अछि आ अपनेक लेखन सँ बुझना जा रहल अछि जे साहित्य केँ अहाँ बहुत पढ़ने छी.

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