सपना

राति देखल एक गोट स्वप्नक गप कहैत छी। ब्रह्मस्थान बला बड़का पोखरिक भीड़ पर माछ मारति रहि। झींगुर ध्वनिमय अधरातिक सन्नाटा में ओई भुतहा पोखरिक भीड़ पर हम असगरे बन्सी धेने बैसल छलहुँ। मन्द मन्द बसातक सन्गहि मोन में रसे-रसे डर सेहो पैसल जा रहल छल। पोखरिक थमकल पानि में छोट-मोट हिलोर पर झिलमिलाइत खस्ठिक (षष्ठीक) आधा चानक छांह देखि, मुदा ई डरक असर कमि गेल छल। डोरि जखनहि कनी तनल आ पनि में दहाइत सिकरिक टुनगी जखनहि सुगबुगायल, हम पट्ट स बन्सी खींच लेलहुँ। धुत तोरि के! रतियो में वेह टेंगरा माछ! रोहु भाकुर सब सुति रहल छै की? माछ के बन्सी स निकालि करची में गंथलहु। फ़ेर चालिक बोर लगेलहु। एतबा में मेघक एक गोट चंचल टुकडा चानके घोघ ओढा गेल। एके छन में घुप्प अन्हार। गामक कुकुर सब सेहो कानय लागल। डर फ़ेर जोर पकडलक मुदा रातिक रोमांच जेना हमर गट्टा धऽ क कहय लागल, कनी काल और, बस कनिके काल!

मेघ हटि गेल छल, पोखरि में चान फ़ेर झलक’ लागल। कुकुरक कानब मुदा बन्द नहि भेल। बन्सी हम पानि में फ़ेर ध’ देलहुँ। बसात सेहो जोर पकरऽ लगलै, हवाक प्रभाव में बांसबीटक घेंटाजोरि स कोलाहल होबय लगलै। कुकुरक कानब सेहो बढि गेलैक। बुझि परैत अछि माछ फ़ेर बोर खा रहल अछि। अहि बेर बड़का माछ फ़न्सल शायद। टुन्गि बहुत तर खींच गेल छइ. बन्सी झिकला पर भारी बुझायल, खिन्च्ने नहि खिन्चा रहल छल। सब दम लगा देलहुँ तखन जा क एगो रोहु सनक माछ दुनु हाथे बन्सिक डोरि पकरने बहरायल। माछक हाथ? हां यौ, आदमी जकाँ माछक दु गोट हाथ। दु छन रुकि क माछ बाजहो लागल! कहै लागल “और चाली रखने छ की? बहुत दिन भऽ गेल सुवदगर चाली खेला।” विस्मय सऽ हमर मुह खुलले रहि गेल। माछ फ़ेर टोकलक, “डेरै के काज नहि छै। वरुण महराज हमरा वरदान में आदमी जकाँ काया आ बोली देने छथि।” रहल सहल बोर बला चाली हम माछक आगु में ध देलियै। चाली खाइते-खाइते माछ बाजल “ गाम में त आब केयो रहि नहि गेल छै। आब त केयो इम्हर बोर खसबै अबिते नहि अछि, तु कत’ स ऐलह?” “बंगलोर स। ” हम डेरैल, दबल आवज़ में बजलहुँ। ‘ओहो, हमहुँ त कहि गाम में आब के बांचल अहि माछ मारै बला?” माछ मुस्की मारैत बाजल। हमर मोन में शंका जागि उठल, गामक लोक सभ कत गेलैथ? हमर बाबु-माय, काका-काकी सभ अतै त छथिन! बडका बाबा, बौवन काका, पाठक जी, फ़ेकन, परिछन सभ कत गेलै? माछ स पुछ्ला पर ओ पिताअ क बाजै लगल। “जहिया छोडि कऽ गेल रह गाम, तहिया सऽ कहियो गामक सुधि लेबाक होश रहल तोर सभ के? के मरल के जील से कहियो केकरो सऽ पुछलहक? आधा गाम तऽ पाइ खातिर तोरे जकां गंगा पारक धुआं बला भट्ठा में झोंका गेल। बचल बुढ्बा बुढिया सभ के वियोग आ वियाधि मारि देलकइ, तहु के बाद जे बचलाह हुनका गरीबी आ भूख ल गेल। तोरा सभ सनक सपूत सभ बाबू-माय दिस कहियो तकहो कहां एलनि?”

माछक बात सभ सुनि मोन बैस गेल। आत्म ग्लानि जागि उठल। ठीके तऽ कहि रहल अछि ई। भोतिकताक जाल में बान्हल आदमीक लेल आय भावनाक मोल माटि बराबर अछि। रिश्ता-नाता, बात-वेहबार सभ पाइ पर केन्द्रित भ गेल अछि। अते तक जे लोक आइ अपन जन्मदाता तक के अपन नहि बुझैत अछि। “कानब सुनै छह की नइ?” माछ बाजल। “हां, कुकुर सभ बरि काल स कनि रहल अछि” हम नहूं अवाज में जबाब देलियै। “हे हे हे, मूढ़ मनुष्य, कुकुर आ आदमी के अवाज में अन्तर सेहो बिसरि गेल्हक की? कनी ध्यान लगा कऽ सुन्हक। सभ मनुखक कानब छै ई। नै विश्वास होइ छ तऽ कनि भीड पर स उतरि कऽ धार दिस देखहक।” माछक अहि जवाब स बैसल डर फ़ेर जगि गेल। पाछा मुन्ह क क धार दिस देखलहुँ त क्षुब्ध रहि गेलहुँ। धारक काते-काते सैकडो लोक घेंट में घेंट जोरि कानति हमरे दिस आबि रहल छल। हमर धड्कन बढै लागल मुदा पैर नहि रुकल। लग एलहु त देखैत छि जे सब चेहरा जानल-पहिचानल। हमर अपन बाबा-दाई दहाड मारि चिचियैत अबि हमरा पकरि लेलनि। कहै लगला जे बौवा कहियो देखहो नहि आयल। बाबा दाई के पाछा बडका बाबा, बौवन काका, पाठक जी, फ़ेकन, परिछन सभ हमरा दिस बिना तकनहि, अप्पन धुन में चिचियैत पता नै कत’ जा रहल छलथि। कचोट स हम मरिये गेलहु। अपनो लोकक दुख हमरा कहियो नहि बुझायल। अपने धुन में रहि गेलहु। हम बन्सी भीड़े पर छोरि, गाम दिस भागय लगलहुँ। गाम पूरा धारे कात जकाँ सुन्न-मसान। डर सऽ हमर करेज जेना बाहर निकल’ लागल। बाप-बाप करति लन्क ल’ क’ हम भागति रहलहुँ। एतबा में जेना बुझायल जे क्यो पकरि क झक्झोरि रहल अछि। होश केलहु त बुझ में आयल जे घरवाली निन्द स जगा रहल छथि। पुछ्लनि जे की भेल, केकर सपना देखै छलहुँ? “आह एक गोट दु:स्वप्न!” हम कहलियनि। मोन कनि आशवस्त भेल।

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लेखक: आदि यायावर मूलनाम: डा. कुमार पद्मनाभ पीयूस आफिस पहुँचि गेल छलाह. सबसँ पहिने अपन लैपटॉप खोलि फेसबुक में स्टेटस अपडेट केलाह आ ...