पति के गप्प नहि मानि जतेक सुख करैत छथि !
भविष्यक लेल ओतबे दुखक पहाड़ बनाबैत छथि !!
कखन धरि रहि सकैत छथि ओ अपन नैहर मे,
बाप-भाय पर आश्रित भए क' !
एक न एक दिन हुनक आबय पड़तैन्ह,
सासुरक चौखट पर !
अन्तकाल मुखाग्नि सेहो सासुर पक्ष सौं भेंटतैन्ह !!
पति के तिरस्कार कए,
ओ कहियो नहि भ' सकैत छथि सुखी !
पायक बले किरायाक आदमी आनि सकैत छथि,
मुदा पति नहि !!
ओहन कमाई कमाई कि,
जाहि मे जिनगी गंवा दी !
लक्ष्मी त' चंचला छथि,
आई नहि त काल्हि अएबे करतीह !!
मुदा जिनगी के ई पल नहि घुरत !
यदि दू-चारि साल बाद घुरब,
तहनो बहुत किछु नहि भेंटत !!
पूरा जिनगी दरकि जाएत !
कतेक पढ़ल लिखल मुर्ख अछि ओ,
जे पति कें भाग्य कें त' कोसैत अछि,
मुदा अपनाक नहि !!
-- सुभाष चन्द्र झा