दर्पण- श्री सतीश चन्द्र झा

अछि दर्पण टांगल देबाल पर
देखि लेब किछु क्षणिक ठहरि क'।
करब कर्म जे अपन दिन भरि
आयत मुख पर भाव उतरि क' ।
बनतै नहि प्रतिबिम्ब झूठ के
उचित कर्म सँ छिटकत आभा।

कवि- श्री सतीश चन्द्र झा, व्याख्याता, दर्शन शास्त्र, मिथिला जनता इंटर कॉलेज, मधुबनी


अनुचित करब मोन किछु टोकत
विकृत बनत मुँहक शोभा ।
जहिया बैसब असगर कहियो
करब जीवनक लेखा-जोखा।
झहरत बूँद आँखि सँ ढप-ढप
रंगहीन लागत जग धोखा ।
छै बताह इ अहं मोन के
जौं जागत नहि सूतत कहियो।
बाँधि लिअ सामर्थ्य हुअए त'
भरि मुठ्ठी बालू के कहियो।
करब अपार अर्थ धन संचय
संस्कार नहि उपजत धन सँ ।
बिलहि देत संतानक भविष्य
दुख-सुख सबटा भोगब तन सँ।
चलू ताकि क' आबू कखनो
अछि धरती जे पैरक नीचाँ।
देखियौ सुन्दर कतेक लागै छै
ओस दूभि पर जेना गलैचाँ ।
आसमान अछि दूर एतय सँ
नहि देखू अछि मात्र कल्पना ।
लागत चोट पैर मे कहियो
जीबू जे अछि ल' क' अपना।

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