भाग्य !


पति के गप्प नहि मानि जतेक सुख करैत छथि !

भविष्यक लेल ओतबे दुखक पहाड़ बनाबैत छथि !!

कखन धरि रहि सकैत छथि ओ अपन नैहर मे,

बाप-भाय पर आश्रित भए क' !

एक न एक दिन हुनक आबय पड़तैन्ह,

सासुरक चौखट पर !

अन्तकाल मुखाग्नि सेहो सासुर पक्ष सौं भेंटतैन्ह !!

पति के तिरस्कार कए,

ओ कहियो नहि भ' सकैत छथि सुखी !

पायक बले किरायाक आदमी आनि सकैत छथि,

मुदा पति नहि !!

ओहन कमाई कमाई कि,

जाहि मे जिनगी गंवा दी !

लक्ष्मी त' चंचला छथि,

आई नहि त काल्हि अएबे करतीह !!

मुदा जिनगी के ई पल नहि घुरत !

यदि दू-चारि साल बाद घुरब,

तहनो बहुत किछु नहि भेंटत !!

पूरा जिनगी दरकि जाएत !

कतेक पढ़ल लिखल मुर्ख अछि ओ,

जे पति कें भाग्य कें त' कोसैत अछि,

मुदा अपनाक नहि !!


-- सुभाष चन्द्र झा

5 comments:

Kumar Padmanabh said...

कविता मे भाव नीक. साहित्य’क छटा आ सम्पूर्णता प्रदान करबाक लेल नियमित लेखन आवश्यक अछि. अभ्यास सँ लेखन मे धार बढ़ैत छैक. अपनेक दोसर कविता’क बाट ताकब.

करण समस्तीपुरी said...

विषय बड गंभीर आ संवेदनशील अछि ! मुदा एक गोट पुरुष के कलम से निकलल अहि तरहक रचना पर प्रायः पूर्वाग्रही, पुरुषवादी, पक्षपाती आ नहि जानि केहन केहन ठप्पा लागि जाएत अछि ! हालांकि दोसर पहलू देखल जाए त' "कुछ तो मजबूरियाँ रही होगी ! यूं ही कोई बेवफा नहि होता!!" पुनश्च लेखन कें उदयावास्था मे अपनेक एहन प्रयोग निश्चय प्रशंसाक अधिकारी अछि! मुदा शिल्प के अंक मे हम अहि बेर कंजूसी करब! कविता के शिल्प किछु अओर भव्य भए सकैत छल !!

Rajiv Ranjan said...

hum karanjee sa purntah sahamat chhi aa tahi karan dubaara nahi likhalahu.


ahan ke
Rajiv

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

अहाँक इ कविता केवल एक्केटा भाग केँ उजागर कय रहल अछि। मोन राखब जे एक्के हाथे थोपडी नहि परैत छैक। यदि कोनो स्त्री एना करय छथि त' ओहि के लेल पुरुष सेहो उत्तरदायी छथि।

सुभाष चन्द्र said...

किछु पारिवारिक ओझाराहैत सब मे ओझरा गेल रही ताहि अहाँ सव्हक विचार देखबा आ गुनबा मे समय लागल. पुरुषार्थ के चारि टा आधार कहल गेल छैक, ओही के आधार मानि के चारू गोटे के गप्प स सहमत छि. एकर परिमार्जन आ कही सुधार अगिला रचना मे होयत.

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