खस्सी आ चिकबा (लघुकथा) - सुभाष चंद्र

एकटा छागर छल, जकरा शुरूए सँ चिकबा पोसि रहल छल। खूब नीक जेकां रहैत छल छागर। चिकबा खूब ध्यान दैत छलै ओहि छागर पर। चिंतित रहैत छल छागरक प्रति। छागर कतओ इम्हर-ओम्हर नहि चलि जाय , कतओ रस्ता नहि बिसारि जाय, कतओ भुलता नहि जाय। हरियर-हरियर घास, कटहरक हरियर पात, रोटी ... सभ किछु खाय लेल दैत छलै छागर कें। कहुना स्वस्थ रहय, इएह मंशा रहैत छलैक।

Subhash Chandraलेखक- श्री सुभाष चन्द्र,
युवा पत्रकार सुभाष जी पत्रकारिताक संग हिन्दी आ मैथिली दुहू साहित्य मे सक्रिय आ "कतेक रास बात"क लेल नियमित रुप सँ लेखन। संगे एकगोट नव मैथिली पत्रिका निकालबा लेल सेहो प्रयासरत छथि। सम्प्रति "प्रथम इम्पैक्ट" नामक पाक्षिक पत्रिका मे कार्यरत आ दिल्ली मे निवास।
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- सम्पादक।



बीतैत समयक संग छागर खस्सीक रूप धारण कय रहल छल। समय बीतैत गेलै। आओर एकदिन चिकबा खस्सी कें लय क बाहर गेल। खस्सी अपना कें सभतरहें सुरिक्षत मानि रहल छल। कारण, संग मे रखबार छल चिकबा। खस्सी के एहि बातक अवगति नहि छलय जे आबय वाला पल केहन प्रलंयकारी हेतैक। ओ त सामने चिकबा कें देखैत छल आ निश्चिंत छल।

चिकबा, जे छागर के पालि-पोसि खस्सी बनोलक, खस्सी के अपनापन के एहसास करौलक। बच्चा सँ वयस्क बनयधरि सदिखन ओकरा सुरक्षा देलक। आब खस्सीक प्रति चिकबाक एतेक सिनेह कियैक रहय, ई त स्वयं चिकबे जाने।

ओ समय लगीच आबि गेलै जखन चिकबा स्वयं आ खस्सीक मध्य अन्तर स्पष्ट करैत अछि। चिकबा खस्सी के बाजार मे बेचि दैत छैक। ओ खस्सी के पुचकारैत बड दुलार सँ अपना लग बजाबैत अछि। खस्सी आबि जाइत छैक, कारण ओ चिकबा लग अपना कें पूर्ण सुरक्षित महसूस करैत अछि। लगीच अयला पर खस्सी के पकरैत अछि। खस्सी शांत, बिलकुल शांत। निस्तब्ध अछि। एकरा ओ सिनेहक एकटा रूप मानैत अछि। चिकबाक हाथ ओकरा पर धीरे-धीरे कसिया रहल छल, आ ....। कनी काल बाद ओ अपना कें बाँन्हल पबैत अछि। एकटा खँटा मे खूँटेसल। लाचार अछि, बेबस, अचंभित। खस्सी किछुओ बुझि नहि पाबि रहल छै। आखिर कियैक ओकरा संग एहन व्यवहार, सेहो चिकबाक हाथे। कारण सोच सँ परे। एकसरि ठाढ़ अछि, असमंजस मे।

किछु पल आओर बितला पर चिकबा अबैत अछि। हाथ मे कत्ता लेने। धरिगर आ भरिगर। खस्सी के साइत आब अनुमान लागि रहल छैक। कानि रहल छै। ओतय चिकबा शांत। बिलकुल शांत। जेना किछुओ नव घटना होमय वाला नहि होय। चिकबा के ज्ञात छैक, आबय वाला समय मे कि होमय जा रहल छै। कियैक भ रहल छै? एकर उत्तरदायी ककरा पर? तइयो शांत अछि। कोनो तिलमिलाहट नहि।

आब, खस्सीक पछिलुका दुनू पैर खींचल जा रहल छै। धड़ सीधा। कराहि रहल अछि खस्सी। शरापि रहल अछि चिकबा केँ। कनैत नहि अछि। कारण ओकर दम घूटि रहल छै। साँस लेबा मे तकलीफ भ रहल छै। एना मे कानल कोना जेतै? चिकबा आब निचैन भ कत्ता उठा कय ओकर गरिदन पर बजारि दैत छैक। गरिदन धड़ सँ विलग। एकदम सँ अलग। चहुँदिश शोणितक छींटा उड़ैत अछि। तइयो चिकबा शांत। एकदम शांत। जेना किछुओ भेलै नहि होइहि।

6 comments:

SANDEEP KUMAR said...

katek Hriday Vidark katha ahan kahalaun. kahiyo khassi khaiy kaal me ee baatak dhayan nai rakhlaun hum sab. ahan tay pura dard ke samane utair delaun. Par jadu aichh ahan ke lekhni me. Sandeep Kumar

बालचन said...

बहुत सुंदर वृतांत अछी सुभाष जी| छद्म सिनेहक एक गोट वीभत्स रूप..... मुदा संसारक येह रीत थिक.... जाई चीकबा के खस्सी स सिनेह भा जाए से बताह.... आ अपना स्वार्थ साधनक लेल केकरो बलि लेबाक तैइय्यार चीकबा काबिल ...

vishal verma said...

subhash jee bahut marmik vritant chhal....ae manav jeevan ma bhi satya aichh...kataik ahan ke vishwas patra chikba ahin par katta chalait se kyo nai janait aichh

Kumar Padmanabh said...

शुभाष जी,

कृएटिव राइटिँग’क शुरुआत नीक अछि. आगुओ एहिना रहत तकरे आशा अछि.

पद्मनाभ मिश्र

Kumar Padmanabh said...

शुभाष जी,

कृएटिव राइटिँग’क शुरुआत नीक अछि. आगुओ एहिना रहत तकरे आशा अछि.

पद्मनाभ मिश्र

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

बालचन जी सत्ते कहलथि जे छद्म सिनेहक एकटा वीभत्स रूप के प्रस्तुत करैत एकटा उत्कृष्ट प्रस्तुति। सभ सँ नीक गप जे अपनेक साहित्यक एकटा आर विधा मे प्रवेश केलहुँ।

"कतेक रास बात" अपनेक सक्रिय योगदानक सदिखन ऋणी रहत।

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