बतँङर (कहानी)

लेखक- डा० पद्मनाभ मिश्र

दिसम्बर’क महीना छल आ भोर दस बजे’क रौद मे ठकना’क चाह’क दोकान’क आगु मे महेश, गणेश, बिदेसी, आ कन्हैया, बैसल छलाह. तीन टा बेन्च, दोकान’क आगू मे तीन दिस सँ राखल छल. एकटा कम चाकर, बिना पेन्ट काएल मुदा बिल्कूल नवे-नव, दोसर मे पौने चारि टा टाँग आ बिना कोनो जोगार के हिलैत डोलैत, तेसर मे एक दिस’क दुनू टा टाँग टूटल मुदा ईँटा गेँट केँ ठोस रुप सँ स्थापित भेल. नव बेन्च पर किओ नहि बैसल छलाह, ई चारो लोकनि नियमित ग्राहक छलाह आ ठकना’क मोन छल जे ओहि पर केवल नव ग्राहक बैसैथि. खासतौर पर गाम मे आएल पाहुन परख. एखन चाह’क पहिल खेपो नहि बनल छल आ ठकना अपन चुल्हा मे कोयला दऽ बियैन सँ हौँकैत छल. ओहि सँ निकलल धुआँ सँ उपस्थित ओहि चारो लोकनि केँ परेशानी होइत छलन्हि आ ठकना दिस कनखी नजर सँ बारी बारी सँ देखैत छलाह. मुदा सब लोकनिक ठकना सँ उधारी चलैत छल आ किनको हिम्मत नहि छलन्हि जे ठकना केँ कहितथि जे जल्दी सँ आगि पजारिबाक लेल. देखल जाए तऽ ठकना जानि बुझि केँ जल्दी सँ आगि पजरए नहि देबऽ चाहैत छलाह. हुनका बुझल छलन्हि जे उपस्थित लोक मे सँ किओ बोहनी कराबय वाला नहि छल. तेँ आगि जल्दी पजरए वा देर सँ, ठकना केँ कोनो समस्या नहि. मुदा गप्प किछु हो, ई ओएह लोक सब थीकाह जे देर सबेर चाह’क पैसा दैये दैत छलथिन्ह, तेँ हुनका लोक केँ जानि बुझि केँ भगेने कोनो फायदा नहि.

ई गाम’क चौक दृश्य छल आ ठकना’क दोकान ओहि चौक पर उपस्थित पाँच टा दोकान मे सबसँ बेसी व्यस्त छल. गाम’क ई एक्के ई टा चौक छल जतय जा केँ प्रत्येक घर’क रास्ता मिलि जाइत छलैक. एहि चौक पर’क दिन, भोर मे आठ बजे सँ शुरु होइत छलैक आ राति दस बजे धरि चलैत छलैक. एतय केवल युवा लोकनिक बोलबाला रहैत छलैक. ई एहेन स्थान छल जतय देश’क प्रत्येक कानून’क समीक्षा काएल जाइत छलैक, जतय बुद्धन’क घर’क नीति सँ लऽ केँ अमेरिका’क विदेश नीति समेत हर सम्भव चर्चा चलैत छलैक. जतय शास्त्रार्थ’क लेल कोनो समय आ पद्धति निर्धारित नहि छलैक. धन्य छल ओ ठकना’क चाह, जे कण्ठ तऽर गेला’क बाद लोक केँ नहि जानि कोना, परिस्थिति’क अनुसार एक दार्शनिक, वैज्ञानिक वा विशेषज्ञ बना दैत छलैक. आ सबसँ पैघ गप्प ई, जे एतय लोक केवल चाय पीबाक लेल कम आबैत छल. चाह’क दोकान पर चाह’क कम आ दोसर चीज’क महत्व बेसी भऽ गेल छल.

एहि सँ पहिने कि चाह’क पहिल खेप बनए आ ओहि सँ चाह’क दोकान पर उपस्थित लोक दार्शनिक, वैज्ञानिक वा विषय-विशेज्ञ बनि जैथि सब किओ क्रमशः चुप्पी साधबा मे बुद्धिमानी बुझैत छलाह, अपितु विषय वस्तु पर गहन चिन्तन करैत छलाह. चुप्पी सँ उर्जा भेटैत छैक, मोन केँ कोनो एक विषय पर एकाग्रचित करबाक मौका भेटैत छैक. चुप्पी, गाम’क चौक पर ठकाना’क चाह’क दोकान पर उपस्थित प्रत्येक ग्राहक’क एक साधना छल, बिल्कूल शास्त्रार्थ सँ पहिने कोनो वरदान’क आश मे एक गहन तपस्या छल. ठकाना किछु दिन मुम्बई मे चाह’क दोकान पर काज केने छल. हुनका बुझल छलन्हि जे कटिँग चाह’क की मतलब होइत छैक. तेँ अपन दोकानदारी मे नगद पैसा देबय वाला केँ फुल चाय दैत छलाह आ उधार वाला लोक केँ कटिँग चाय. मुदा कटिँग चाय सँ किनको परेशानी नहि छलन्हि.

चाह’क पहिल खेप बनि चुकल छल. आ कटिँग चाह’क गिलास सब गोटेँ लऽग आबि गेल छल. महेश जोर सँ फुँकि केँ पहिल चुस्की मुँह मे लेबय वाला प्रथम व्यक्ति छलाह. बिदेसी सँ रहल नहि गेलन्हि आ जोर सँ चुस्की लैत महेश केँ कहलथिन्ह, "की यौ महेश बाबु बहुत जोर सँ चुस्की लऽ रहल छी?"
"हँ! हँ! हम कोन काज नुका केँ केने छी जे आई करब, चाह पी रहल छी कोनो चोरी नहि कऽ रहल छी" महेश अपन अँदाज मे उत्तर देलथिन्ह.

बिदेसी अपन गप्प केँ प्रमाणित करबाक कोशिश करैत कहलथिन्ह, "सैह तऽ कहलहुँ, जे अहाँ तऽ कोनो काज नुका के नहि करैत छी, तेँ एत्तेक दिन सँ, इएह ठकना’क चाह’क दोकान पर अहाँक चुस्की किओ नहि सुनैत छल, आई सड़क धरि सुना परि रहल अछि, से किएक?"

"ई समय-समय के गप्प थीक भैजी, भऽ सकैत अछि जे अहाँ हमर चुस्की मे कोनो विशेष ध्यान नहि देने होयब", महेश जी अपन गप्प पर अड़ल छलैथि.

"से गप्प नहि छैक, आई हमहुँ अहाँक चुस्की मे बेसी दम देखलहुँ, जरूर कोनो गप्प अछि, कोनो शुभ समाचार आएल अछि तऽ कहल जाए, आ आजुक चाह ओहि समाचार’क नाम पर प्रायोजित काएल जाए, की यौ गणेश जी", कन्हैया लाव लश्कर’क सँग मैदान मे उतरि चुकल छलाह, आ बाँकी बचल गणेश केँ शामिल करबा चुकल छल. वास्तव मे महेश जी जतबे अन्तरमुखी व्यक्ति छलाह ओतबे कन्हैया लबरधौर. बाँकी लोकनि सामान्य छलाह आ कुटनीति भाषा मे ओकरा अवसरवादी कहल जाइत छैक. मतलब ई, "जे पलड़ा भारी बुझि मे आबय उम्हरे झुकि जायब".

चुँकि गणेश केँ गप्प मे शामिल काएल जा चुकल छल तेँ बिना कोनो बाट ताकने खटाक सँ उत्तर देलैथि, "महेश जी केँ कम नहि बुझल जाए. जतेक बाहर सँ शाँत लागि रहल छथि अन्दर सँ ओतबी शातिर बुझु. हमरा चारो लोकनि मे ठकना’क खाता मे सबसँ कम हुनके पैसा छन्हि, नहि जानि कोना, ई प्रत्येक दिन जोगार बैसा लैत छथि, की हौ ठक्कन हम फुसि बाजि रहल छी की?" गणेश अपन गप्प खतम कहैत बजलाह.

ठकना सहमति मे अपन माथ डोला देने छल.

चारु लोकनि अपन अपन तरीका सँ अपन अपन गप्प’क केँ सिद्ध करबा मे लागल छलाह. बिना पढ़ने दार्शनिक सिद्धान्त केँ फेल करैत, बिना पूर्वाग्रह सँ ग्रसित पूर्णतया नव नव सिद्धान्त दैत तर्क, आई चारो लोक बाँकी दिन सँ बेसी मेधावी लागैत छलाह.

अपन तर्क सँ दोसर केँ चुप्प भेल देख बारी बारी सँ सब लोकनि उत्साहित होइत छलाह. ई अक्सरहाँ होइत छैक, जे विजय के अनुभूति मात्र सँ प्रतिभा बढ़ि जैत छैक. तेँ हुनका लोकनिक प्रतिभा सेहो बढ़ि गेल छलन्हि. महफिल अपन चरमोत्कर्ष पर एखन नहि पहुँचल छल कि एतबी मे मुसाय झा केँ डाक-घर सँ आबैत देख महेश पुछि देलथिन्ह, "की यौ मुसाय बाबु कतय सँ आबि रहल छी ?". कतओ सँ नहि कनि दोकान दिस गेल छलहुँ कि डाक बाबु ई रमेश'क चिट्ठी धरा देलथिन्ह. आब हुनके ओतय जा रहल छी हुनकर माए केँ दऽ देबन्हि.

मुसाय बाबु केँ गाम’क लोक बकलेल बुझैत छलन्हि. अक्सर ई भऽ जाइत छैक, दुनियाँ मे जीबाक लेल लोक केँ इर्ष्या, द्वेश, कुटनीति इत्यादि’क जरुरत होइत छैक. आवश्यकता सँ बेसी सज्जन केँ लोक एहेन तरह’क काज नहि कऽ सकैत छथि तेँ बाँकी लोक हुनका बकलेल बुझए लागैत छथि. मुसाय बाबु बहुत सज्जन लोक छलैथ. ओतबी बाजैथ जतेक जरूरत होइन्हि. ई चारो लोक केँ ओ जानैत रहैथ. गाम मे कतेक बेर बाजि चुकल छलाह जे ई लोकनि चौक’क माहौल खराप कऽ केँ राखि देने छथि. बेरोजगार जेकाँ पड़ल रहैत छथि आ उधारी आ मँगनी के चाय पीबैत रहैत छथि. हुनका लोकनि केँ देखि मुसाय बाबु चिट्ठी के नुकौने छलथि. मुदा हुनका बिदेसी पुछि देलकन्हि, "से कोन चिट्ठी छैक, अन्तर्देशी वा लिफाफा? कनि लऽग आबु नहि?"

मुसाय बाबु केँ जाहि बात’क डर छलन्हि ओएह भऽ गेलन्हि. मुदा ओहि चारु लोकनि सँ पारो नहि लागि सकैत छलन्हि. तेँ जेब सँ चिट्ठी निकालैत ओ कहि देलथिन्ह, "अन्तर्देशी" चिट्ठी थीक. कि एतबी मे बिदेसी ओहि चिट्ठी केँ छीनि लेलथिन्ह. मुसाय बाबु हाँ-हाँ करैत रहि गेलाह मुदा ओ लोक नहि मानलन्हि.

ओ चारो लोकनिक ध्यान आब चिट्ठी दिस चलि गेल छल. अन्तर्देशी केँ उलटि पुलटि केँ देखल जा रहल छल. ओ चारो लोकनिक मोन कऽ रहल छलन्हि जे कखन ओ चिट्ठी केँ फाड़ि पढ़ि लेल जाए. मुदा मुसाय बाबु’क तटस्थ विरोध सँ ओना नहि कऽ सकलाह. रमेश पाँच साल पहिने बी.ए. पास कऽ केँ, जयपूर चलि गेल छलाह. पहिने तीन साल धरि कोनो खोज खबरि नहि देलथिन्ह. ओकर बाद एकटा चिट्ठी आ तकर बाद मास दू मास पर कोनो ने कोनो खबरि पठाबैत रहैत छलथिन्ह. रमेश, पाँच साल सँ घर किएक नहि आएल छलाह, से गाम मे चर्चा’क विषय बनि गेल छल. चौक पर बैसल ओ चारो लोकनि से ताक मे छलाह, जे कोनो तरहेँ पता लगाओल जाए जे आखिर गप्प की अछि.

मुसाय बाबु किन्नहुँ तैयार नहि छलाह जे चिट्ठी फाड़ल जाए. ई अक्सर होइत छैक जिनका लोक बेसी बकलेल बुझैत छथि ओ बेसी इमानदार होइत छैक. बेइमानी करबा मे बुद्धि’क इस्तेमाल होइत छैक तेँ तथाकथित बकलेल लोक बेइमानी नहि कऽ सकैत छथि. चारो लोकनि मुसाय बाबु के बकलेल जरुर बुझैत छलाह, मुदा हुनका इहो बुझल छलन्हि हुनकर इमानदारी ओहि चिट्ठी केँ पढ़बा मे बाधक साबित होयत. तेँ अन्तरदेशी केँ गोल बना केँ बीच वाला भूर मे सँ बिना फाड़ने ओ देखय लागलाह. ओहि मे बहुत किछु आँशिक रुप सँ देखा पड़ि रहल छलन्हि मुदा ओकर कोनो मतलब नहि निकालल जा सकैत छल. ताबय धरि मे बिदेसी केँ एक पूरा पँक्ति पढ़ि मे एलन्हि. लिखल छल, "माँ एतय हम सब व्यवस्था केने छी एखन गाम एबाक कोनो प्रयोजन नहिँ". बिदेसी ई लाइन पढ़ि के सब केँ सुनेलथिन्ह आ बाँकी तीन लोक ओ पँक्ति केँ देख केँ बिदेसी’क गप्प पर मोहर लगा देलथिन्ह. ताबय मे मुसाय बाबु चिट्ठी केँ वापस छीनि नेने छलाह. ओ रमेश’क माए केँ चिट्ठी देबाक लेल आगू जा चुकल छलाह.

बिदेसी बाँकी तीनो लोकनि केँ कहलथिन्ह, "ई देखू रमेशबा केँ, पिछला पाँच साल सँ गाम नहि आएल अछि आ आब कहि रहल अछि जे ओतय सब व्यवस्था भऽ चुकल अछि, ई सब व्यवस्था के की मतलब भेल?"

महेश टोन देलथिन्ह, "सब व्यवस्था के की मतलब हेतैक, एखन ओ जयपूर मे रहैत छथि, पैसा कमेबे करैतत हेताह, पाँच साल सँ नहि तऽ गाम आएल आ नहिएँ एकोटा पैसे पठेलक, एखन जवान छथि, भऽ सकैत छैक जे उम्हरे विवाह दान कऽ नेने होइथि"

बिदेसी प्रत्योत्तर देलथिन्ह, "ठीक कहैत छी यौ महेश जी, जरूर ई छौड़ा विवाह कऽ नेने अछि."

"हँ तेँ लाजे गाम नहि आबि रहल छथि, कोन मुँह देखेताह अपन माए बाबुजी केँ" गणेश अपन पक्ष राखैत बाँकी लोक केँ प्रभावित करबाक कोशिश केलथिन्ह.


एहि कथा’क बाँकी हिस्सा हमर पोथी "भोथर पेन्सिल सँ लिखल" मे देल गेल अछि.
पोथी’क बारे मे विशेष जानकारी आ कीनबाक लेल प्रक्रिया निम्न लिन्क मे देल गेल अछि. http://www.bhothar-pencil.co.cc/ .

मैथिली भाषा’क उत्थान मे योगदान करु. पोथी कीनि साहित्य केँ आगू बढ़ाऊ.

4 comments:

करण समस्तीपुरी said...

saanche ee kahaanee apnek aan kahaanee se hati ke achhi ! ehi katha me lekhakak chhap nahi prateet hoyet achchhi ! Sheershakak anusaar kathaa me batangar ta bharpoor achhi muda ohan kuno sashakt sandesh nahi je apnek kahaanee ke visheshataa rahait chhal ! Vilamb se aa roman lipi me tippani ke lel maafi chaahait chhee !!!

सुभाष चन्द्र said...

कहानी किछु दिन पहिने देख चुकल रही, मुदा पढबाक-गुनबाक मौका नहि भेटि रहल छल। किछु ओझरहटि मे ओझरायल रही। मौका लगिते पढल। अपनेक पहिलुका ’ौली सँ हटि कय एकटा नबका रूप कें दर्’ान भेल। कहानी अपन ’ाीर्सक के आदि सँ अन्त धरि साबित करैत अछि। एक्कहि गप्प कें केना चिरौरी कएल जाए आ बात सँ बतंगर होइत छै, से देखबा मे आयल।
ओना अति’योक्ति नहि कहल जाए त करणजी कें गप्प सँ सहमति होबा मे कोनो असोकरज नहि होबाक चाही।

Kumar Padmanabh said...

पाठक लोकनिक सलाह सबसँ बेसी उपयोगी तेँ सबसँ महत्वपूर्ण.एहि बेर हमर फ़ोरमुला हिट नहिँ भेल ताहि लेल खेद अछि. बाँकी अगिला बेर फेर सँ नीक करबाक कोशिश करब.

कुन्दन कुमार मल्लिक said...

शीर्षक केँ अनुसार बातक कोना बतंगर बनाओल जायत अछि तकर नीक चित्रण। एकर अंत किछु आर सशक्त बनाओल जा सकैत छ्ल।

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